स्वीकार का प्रकाश



मैं अपने स्वरूप को अपनाना चाहता हूँ,
हर रेखा, हर छवि, हर छूटा हुआ किनारा।
मैं किसी और के सांचे में ढलना नहीं चाहता,
मैं स्वयं की परछाईं में संवरना चाहता हूँ।

कभी बहुत पतला, कभी बहुत भारी,
दर्पण के पीछे की कहानी सारी।
पर क्या यह मात्र एक मृगतृष्णा नहीं?
स्वास्थ्य ही सच्ची सम्पदा सही।

मैं अपने होने को सम्मान देना चाहता हूँ,
अपने अस्तित्व को प्रेम से सींचना चाहता हूँ।
क्योंकि यही मेरा सबसे प्रिय मंदिर है,
यही मेरा सबसे पावन आश्रय है।

"स्वयं को जान, स्वयं को मान,
तेरी आभा ही तेरा ज्ञान।
जो भीतर प्रज्वलित प्रकाश है,
वही सच्चा सौंदर्य का एहसास है।"

मैं अब किसी तुला पर नहीं चढ़ूंगा,
न स्वयं को मापूंगा, न तराजू में तोलूंगा।
मैं अपने जीवन की धारा बनूंगा,
स्वीकृति के संग प्रेम में घूलूंगा।


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