कैद का जीवन



मैं कैद नहीं सह सकता,
दीवारों में साँस नहीं भर सकता।
कोई राह हो, कोई दर हो,
जहाँ खुले गगन का स्वर हो।

पर देखता हूँ चारों ओर,
कैसे लोग सजा रहे हैं,
अपनी-अपनी कोठरियों को,
कैसे कैद में भी हँस रहे हैं।

कोई शराब में डूबा बैठा,
कोई पर्दे की दुनिया में खोया,
कोई दौलत का खेल रचाए,
कोई रिश्तों में झूठ संजोया।

मैं सोचता हूँ, क्यों नहीं भागते?
क्यों ये बेड़ियाँ तोड़ नहीं जाते?
फिर समझ आता है उत्तर,
ये खुद ही बेड़ियाँ बनाते।

मैं निकलूँगा, मैं उड़ूँगा,
न व्यसन में, न छल में झुकूँगा।
जहाँ खुले नभ का विस्तार हो,
वहीं जीवन का त्यौहार हो।


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