बुझती रातों के सौदागर



मैं निकला था आग बुझाने,
पर जलकर ही लौट आया।
चंद सिक्कों में खरीदा जिस्म,
पर रूह को कहीं छोड़ आया।

वो खड़ी थी, एक परछाई सी,
ना मोह, ना कोई आस थी।
होंठ मुस्कुराए, पर आँखें चुप,
जैसे बरसों से कुछ प्यास थी।

बिस्तर की सिलवटों में,
शहर की कहानियाँ बिखरी थीं।
जिस्म मिले, मगर वो लम्हे,
आधी रात में ही बिखर गए।

मैंने पूछा— "कभी प्यार हुआ?"
वो हँसी, फिर चुप सी हो गई।
बोली— "यहाँ प्यार बिकता नहीं,
सिर्फ रातों की बोली लगती है।"

वो चली गई, मैं भी बढ़ गया,
पर देह की वह गंध रह गई।
बंद दरवाज़े के पीछे कहीं,
एक कहानी अधूरी रह गई।


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