बिकते जिस्म, भटके मन



रात के अंधेरे में इक सौदा हुआ,
चंद सिक्कों में जिस्म का सौंपा गया।
मैं खड़ा था एक अजनबी के सामने,
जिसकी हँसी में दर्द भी छिपा हुआ।

उसकी आँखों में बुझी सी रौशनी थी,
शायद अरमानों की लाश जल चुकी थी।
मैंने पूछा, "तुझे कैसा लगता है?"
वो हँसी और बोली, "अब कुछ महसूस नहीं होता है।"

सिंदूर की जगह ये काजल बहता,
हर रात नया नाम, नया चेहरा रहता।
देह तो दे दी, पर आत्मा अब भी सूनी,
सांसें तो चलती हैं, पर रूह मर चुकी है पूरी।

मैंने उसे छुआ, पर भीतर सिहरन सी आई,
वो बस निभा रही थी, पर आँखें भर आईं।
मैंने खुद को देखा उस शीशे में,
जहाँ वासना तो थी, पर आत्मा खो गई थी।

शायद ये जिस्म बिस्तरों पर मिल जाए,
पर प्रेम की तलाश इन गलियों में नहीं आती।
एक रात का सौदा तो हर कोई कर ले,
पर किसी की रूह को अपनाने की हिम्मत कहाँ लाते?


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