बिकता हुआ प्रेम



मैं रात के साये में चला,
जहाँ चंद सिक्कों में जिस्म मिला।
हँसी तो थी, पर जमी हुई,
आँखों में कोई नमी नहीं।

वो बोली – "क्या चाहिए तुझे?"
मैंने कहा – "कुछ पल का प्यार।"
वो मुस्कुराई, सौदा पक्का,
बिस्तर बना इक बाज़ार।

उसकी उँगलियों का स्पर्श था गर्म,
पर आत्मा अब भी ठंडी रही।
उसकी सिसकियाँ लय में बंधीं,
पर अंदर कोई धुन नहीं बजी।

रात गुज़र गई, लिपटे थे हम,
पर सुबह अलग-अलग राह चली।
मैंने शरीर छुआ था उसका,
पर रूह अब भी अछूती रही।

मैंने देखा, वो फिर तैयार,
नए ग्राहक का इंतज़ार।
जिस्म तो बिका, पर वो नहीं,
हर रात बस यूँ ही बिखरती रही।

शरीर मिला, सुख भी मिला,
पर आत्मा अब भी प्यास रही।
जिस प्यार को बाज़ार में खोजा,
वो आज भी कहीं दूर खड़ा हँस रहा था।


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