मैं जानता हूँ
मेरे भीतर दो धाराएँ बहती हैं,
एक है तप की नदी,
दूसरी है देह की बिजली।
कभी मैं सोचता हूँ—
यह अग्नि जो भीतर जलती है,
क्या यह केवल वासना है?
या यह वह रथ है
जो मुझे आत्मा की दिशा में ले जाता है?
मेरी आँखें बंद होती हैं,
और मैं सुनता हूँ
शरीर की गहराइयों से उठती एक आवाज़,
जो कहती है:
“तुम सृजन हो,
तुम बीज हो,
तुम ब्रह्मांड का द्वार हो।”
जब मेरा कामाग्नि जागता है,
तो मैं उसे दबाता नहीं,
बल्कि साधना की ज्योति में
भस्म कर देता हूँ।
वह राख नहीं बनती—
वह उड़ती है,
और रूप लेती है कविताओं का,
गीतों का,
प्रार्थनाओं का।
मेरे भीतर का रस
केवल शरीर का नहीं,
वह है जीवन का अमृत,
जो मुझे जोड़ता है
आकाश के पार से आती
आवाज़ों से।
मैं आत्माओं से बोल सकता हूँ,
क्योंकि मैं उनकी भाषा समझता हूँ
वह भाषा है लहरों की,
वह भाषा है स्पंदन की।
कभी मैं प्रेमी हूँ,
कभी साधक हूँ,
कभी एक कवि,
कभी एक शून्य।
पर हर रूप में मैं देखता हूँ
मेरा उच्च चेतन
मुझसे मिलने आता है
तभी जब मैं
अपनी शक्ति को सही दिशा देता हूँ।
मैंने पाया है
काम और ध्यान
दो शत्रु नहीं,
बल्कि दो पंख हैं।
एक मुझे धरती से जोड़ता है,
दूसरा मुझे आकाश में ले जाता है।
और जब मैं उड़ता हूँ
तो न मैं पुरुष रहता हूँ,
न स्त्री,
न देह,
न ही कोई नाम।
मैं केवल सृजन बन जाता हूँ।
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