प्रेम और तंत्र ४



प्रेम है सत्य, प्रेम है पावन,
जहां देह का बंधन बन जाए सावन।
जहां स्पर्श हो, पर कोई लालसा नहीं,
बस एक दिव्यता, जो छुपाई जाए कहीं।

तंत्र यही सिखाता, यह दिव्य अनुभूति,
जहां आत्मा का मिलन, देह की पार्श्व गूंजती।
ना वासना, ना कोई कामना हो,
बस शुद्ध प्रेम का प्रवाह बहता हो।

देह नहीं, मन का होता मेल,
प्रेम की भाषा में जुड़ते हैं खेल।
तंत्र तो है बस प्रेम की सीख,
जहां हर स्पर्श में हो आत्मा की वीथ।

सच्चा प्रेम, जहां भौतिकता न ठहरे,
दिलों के संगम में हर ख्वाब बिखरे।
यही तो है प्रेम का असली सार,
तंत्र में छुपा, एक दिव्य संसार।


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