काम की दुनिया में, कहाँ सपनों का ठिकाना था।
सपनों की स्याही से लिखना चाहता था कुछ खास,
पर समय की सुइयों ने बाँध दिया उसे, जैसे कोई प्यास।
डेडलाइन की आवाज़ें कानों में गूंज रही थीं,
मन की गहराइयों में इच्छाएँ टूट रही थीं।
वक़्त का पहिया घूमता रहा, दिन और रात,
कवि की लेखनी में बंधी रही, काम की बात।
पर दिल के कोने में एक आस जगी,
कि कभी समय मिलेगा, बिना किसी घड़ी की बंदिशों के।
तब वो लिखेगा, अपनी रूह की स्याही से,
खुलकर, बिना किसी हड़बड़ी के।
समय की सीमाएँ तोड़, वो पाएगा खुद को,
एक नए सवेरे में, जहाँ कोई डेडलाइन ना हो।
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