पृथ्वी सूक्त: प्रकृति के प्रति श्रद्धा और संरक्षण का संदेश

### पृथ्वी सूक्त: प्रकृति के प्रति श्रद्धा और संरक्षण का संदेश

वेदों के सूक्तों में से एक, 'पृथ्वी सूक्त' न केवल पृथ्वी की महिमा का गुणगान करता है, बल्कि उसके संरक्षण की गहरी समझ और आह्वान भी करता है। यह सूक्त पृथ्वी के सार और उसकी पुष्पित जीवनशक्ति को मूर्त और अमूर्त दोनों तत्वों के माध्यम से अभिव्यक्त करता है।

**पृथ्वी सूक्त की महत्ता:**

अथर्ववेद के कांड XII के सूक्त 1 में विस्तारित 63 छंद हमें पृथ्वी के प्रति हमारे गहरे भावनात्मक संबंध को दर्शाते हैं। इस सूक्त में वैदिक ऋषि गर्व से घोषणा करते हैं:

**"माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः"**

(पृथ्वी मेरी माता है, मैं उसका पुत्र हूँ।)

इस सूक्त में पृथ्वी को देवी रूप में सम्मानित किया गया है और उससे समृद्धि और उच्चतम आकांक्षाओं की पूर्ति की प्रार्थना की गई है। वेदों में पृथ्वी के विभिन्न पहलुओं, जैसे कि जड़ी-बूटियों, वनस्पतियों, पर्वतों, नदियों आदि को पूजनीय माना गया है।

**संस्कृत श्लोक:**

**"सा नो भूमिः पूर्वपेया नमस्वन्तः परेऽनु पूज्यामः।  
सा नो भूमिः पृथिवी यक्ष्मस्मान् विश्वं पुष्टिं च तनुतु क्षयं च।"**

(हमारी वह भूमि जो पहले पेय है, हमें झुकाकर पूजनीय है। वह भूमि हमें रोगों से मुक्त करे और समृद्धि प्रदान करे।)

**वेदों का संरक्षण संदेश:**

वेदों में पृथ्वी की रक्षा और संरक्षण के लिए कई महत्वपूर्ण सिद्धांत बताए गए हैं:

1. **संतुलित जीवनशैली:** वेदों में प्रकृति के साथ संतुलित जीवन जीने पर जोर दिया गया है। इसका अर्थ है कि हमें अपने संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग करना चाहिए और पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाले कार्यों से बचना चाहिए।

2. **अहिंसा और संवेदनशीलता:** सभी जीवों और अजीव वस्तुओं के प्रति अहिंसा और संवेदनशीलता का पालन करना चाहिए। जैन धर्म का 'अहिंसा परमो धर्मः' का सिद्धांत भी इसी पर आधारित है।

3. **प्रकृति के प्रति कृतज्ञता:** वेदों में प्रकृति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने की परंपरा है। यज्ञ और हवन के माध्यम से पृथ्वी, जल, वायु आदि को धन्यवाद दिया जाता है और उनकी समृद्धि की कामना की जाती है।

4. **पृथ्वी की पवित्रता:** वेदों में पृथ्वी को पवित्र माना गया है। उसे आहत, घायल, टूटा हुआ और विक्षिप्त नहीं होना चाहिए। उसकी संरक्षा के लिए इंद्र देवता का आह्वान किया जाता है।

**संस्कृत श्लोक:**

**"प्राणानां ग्रन्थिरसि रुद्रो मा विशान्तकः।  
तेनान्येनाप्यायस्व जीवसे मा विशान्तकः।"**

(तुम प्राणों के ग्रंथि हो, हे रुद्र, हमें आहत न करो। दूसरे तरीके से जीने के लिए हमारा पोषण करो, हमें आहत न करो।)

यह श्लोक स्पष्ट करता है कि पृथ्वी की पवित्रता और संरक्षा के लिए देवताओं का आह्वान करना आवश्यक है। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पृथ्वी और उसके तत्व हमेशा स्वस्थ और सुरक्षित रहें।

**निष्कर्ष:**

वेदों के ये श्लोक और सिद्धांत हमें यह सिखाते हैं कि हमें अपनी पृथ्वी की रक्षा कैसे करनी चाहिए। हमें प्रकृति के प्रति कृतज्ञता, संतुलित जीवनशैली और अहिंसा का पालन करना चाहिए। पृथ्वी हमारी माता है, और उसकी रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है। इससे न केवल हमारी समृद्धि होगी, बल्कि हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए भी एक स्वस्थ और संतुलित पर्यावरण सुनिश्चित होगा।

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