सिद्धांत या नैतिकता, आदत की मजबूरी,
जिंदगी में उठते हैं, सवालों की धूरी।
हर निर्णय में, एक युद्ध का दौर,
अंदर ही अंदर, लड़ता रहता कोई और।
मजबूर आदतें, जो बनीं रोज़मर्रा की,
उनके पीछे छिपी, कमजोरियाँ कई।
हर फैसले में, तर्क और वितर्क का खेल,
आत्मा और मन का, अनंत संघर्ष, अनंत मेल।
यह लड़ाई खुद से, खुद की है,
ना कोई शत्रु, ना कोई सजीव साथी है।
बस दो आवाज़ें, अंदर की चुप्पी में,
एक सिद्धांत, एक आदत की गहराई में।
जब सिद्धांत का स्वर, जोर से पुकारे,
और आदत की मजबूरी, उसे चुनौती दे।
तब मन की माटी में, एक तूफान उठे,
खुद से खुद की, यह अनूठी लड़ाई सजे।
हर संघर्ष का अंत, होता है निर्णय,
सिद्धांत की जीत या आदत का स्वीकार।
पर यह लड़ाई, कभी थमती नहीं,
खुद से खुद की, निरंतर चलती यह बयार।
जब मन थकता है, और आत्मा हार मानती है,
तब भी कहीं, कोई आशा मुस्कुराती है।
कि एक दिन सिद्धांत, आदत को हराएगा,
और खुद से खुद की लड़ाई, खुद ही सुलझाएगा।
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