मैं, एक अणु, जो ब्रह्मांड में विचरता,
ब्रह्मांड का अंश, जो मुझमें बसता।
क्षितिज की गहराई में, तारे की चमक में,
हर कण में, हर क्षण में, मैं ही दिखता।
मैं कण-कण में बसा, फिर भी अनंत में खोया,
मेरा स्वरूप, सीमित भी, और असीम भी जोया।
सृष्टि की गति, मेरी धड़कन के संग,
मैं सजीव, मैं जड़, मैं ही हर रंग।
मैं धरा पर झुका, गगन को चूमता,
मैं वायु में बसा, मैं जल में घूमता।
मुझमें वो तारे, वो गैलेक्सी का नाच,
मैं ही प्रकाश, मैं ही अंधकार का आभास।
मैं कण में कण, और कण में अनंत,
मैं सागर की गहराई, और तारे का अंत।
मैं स्वयं में ब्रह्मांड, और ब्रह्मांड मुझमें,
हर धड़कन में बसा, हर कण में सजा।
"आत्मा के अणु में, ब्रह्मांड का गीत,
हर श्वास में छिपा, सृष्टि का संगीत।"
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