कभी सोचा है क्यों हर बार झुक जाते हो,
दूसरों की खुशी में खुद को मिटा देते हो।
यह आदत, यह डर, यह सहमापन,
कहीं न कहीं बचपन से ही है जुड़ा हुआ।
जहां घर की दीवारें बोलती नहीं थीं,
पर चीखों का साया हर कोने में था।
जहां स्नेह की जगह चुप्पी थी भारी,
और प्यार की भाषा जैसे भूल चुके थे सारे।
उन अनिश्चित पलों में, सीखा था तुमने,
हर चेहरा पढ़ना, हर कदम संभलना।
किसी की नाराज़गी से बचने की कला,
अपने दर्द को छुपाने का हौसला।
माँ-बाप की उम्मीदें, उनका गुस्सा,
जैसे बोझ बनकर कंधों पर बैठा।
उनकी खुशी में ही अपना सुख देखा,
उनकी नाराज़गी से बचने का सबक सीखा।
तुम्हारी इच्छाएं, तुम्हारे सपने,
शायद किसी को दिखे ही नहीं।
बस एक ही मकसद रह गया,
"सबको खुश रखो, खुद कुछ न कहो।"
इस भ्रम में जीते रहे सालों तक,
कि तुम्हारी कीमत है दूसरों की मुस्कान।
अपनी आवाज़ दबा दी हर बार,
और दूसरों की चाहतों को बना दिया आधार।
अब समय है इस चक्र को तोड़ने का,
अपने भीतर की आवाज़ को सुनने का।
जो बचपन के घाव से निकली आदत है,
उसे प्यार से समझकर बदलने का।
अपने आप से कहो:
"मैं भी मायने रखता हूँ, मेरा सुख भी जरूरी है।
दूसरों की खुशी मेरी जिम्मेदारी नहीं,
मेरा अस्तित्व मेरा आधार है।"
अब अपने बचपन के दर्द को गले लगाओ,
और अपनी सच्चाई को अपनाओ।
यह जो 'बहुत अच्छा बनना' है,
यह तुम्हारा नहीं, पुराने घावों का एक सपना है।
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