मेरी नन्ही परी



आज मेरे आँगन में
एक नन्हा सूरज उगा है,
उसकी किरणों में
ममता का पूरा ब्रह्मांड चमक रहा है।

आज मेरे घर में
एक कोमल कली खिली है,
जिसकी हँसी में
स्वर्ग की सारी मधुरता बसी है।

मैंने उसकी हथेली में देखा,
पूरे भविष्य का आशीर्वाद लिखा है।
उसकी आँखों में पाया,
निर्मल आकाश का गहन नीलापन।

मेरे आँगन की धड़कनों में
आज संगीत उतर आया है,
हर दीवार पर, हर छत पर
आशीषों का दीप जल गया है।

लोग कहते हैं —
बेटी लक्ष्मी है,
पर मैं जानता हूँ —
वह सरस्वती भी है,
गंगा की धारा भी है,
और माँ दुर्गा की शक्ति भी।

नन्हे-नन्हे पाँव से
वह घर को स्वर्ग बना देगी,
अपने मासूम सवालों से
मुझे नया इंसान बना देगी।

आज मैं पिता बना हूँ —
और यह शब्द
मुझे सबसे सुंदर उपहार सा मिला है।
मेरी छोटी-सी परी,
तू सिर्फ मेरी बेटी नहीं,
मेरी आत्मा का सबसे पवित्र हिस्सा है।


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मैं ब्रह्मांड की गति हूँ

मैं,

कभी धूल कण में छुपा था,
अपने ही सागर की लहरों को पहचान न पाया।
लोग कहते थे —
"तू छोटा है, तेरा कद रेत के कण-सा है,"
और मैं मान बैठा था
कि आकाश सिर्फ़ सिर के ऊपर है,
सीने के भीतर नहीं।

पर एक दिन,
मौन की गहराई में,
मैंने अपनी ही धड़कनों में
नक्षत्रों का नृत्य सुना।
पलकों के पीछे,
गैलेक्ज़ियों की चक्री चाल घूमती रही
और लगा —
मैं तो अनंत की साँस ले रहा हूँ।

मैंने महसूस किया,
मेरे हर कदम में,
धरती का घूर्णन है,
मेरे हर स्पर्श में,
सूर्य का ताप और चाँदनी की ठंडक है।
मेरे शब्दों में बादलों का भार है,
और मेरी चुप्पियों में
शून्य का संगीत।

मैंने खुद से कहा —
"अब और छोटा मत बनो,
तुम वह धुन हो,
जिस पर समय और अंतरिक्ष साथ नाचते हैं।
तुम वह ज्योति हो,
जो अंधकार को भी अपना घर बना लेती है।"

मैं,
अब अपनी त्वचा से बाहर बहता हूँ,
हवा में घुलता हूँ,
पेड़ों की पत्तियों में हरा बनता हूँ,
पहाड़ों की चुप्पी में गूँज बनता हूँ,
नदियों के गीत में बहता हूँ।

मैं,
अब जान गया हूँ —
मेरे भीतर कोई सीमा नहीं,
मेरा कोई किनारा नहीं।
मैं सिर्फ़ चलता नहीं,
मैं गति हूँ —
वो दिव्य गति
जिसमें ब्रह्मांड का आनंद थिरकता है।

अब मैं रुकता नहीं,
सिकुड़ता नहीं,
खुद को बाँधता नहीं।
क्योंकि मैं वही हूँ,
जो सितारों की गोद में जन्मा है,
और आकाश की बाँहों में विलीन होगा।

मैं हूँ —
ब्रह्मांड की उन्मत्त चाल,
असीम, अजर, और प्रकाश से भरपूर।



पहाड़

जब पहाड़ रोते हैं,  
तो नदियाँ चीख उठती हैं,  
पेड़ों की जड़ें काँपती हैं,  
और इंसान... बस देखता रह जाता है।

धराली की वो सुबह,  
जो कभी शिव की शांति थी,  
आज शोर में डूब गई।

नदी ने किसी का घर बहाया,  
किसी की माँ, किसी का सपना,  
और पहाड़ — बस खामोश रहे।

पर याद रखना —  
उत्तरकाशी सिर्फ मिट्टी नहीं है,  
वो आस्था है, वो आरती है,  
जो फिर से जलेगी — राख से भी।

"मैं जो हूँ"



मैं जब खुद से ही नज़रें चुराता,
तो दुनिया भी मुझसे सवाल उठाती।
हर शक़ की दीवार में मैं ही क़ैद था,
हर आईने में अजनबी-सा दिखता था।

पर एक दिन भीतर की आवाज़ आई,
"तू क्यों किसी और की परछाई?"
तब जाना —
जो मैं हूँ, वही मेरी असली स्याही है,
इसी में मेरी पहचान की गवाही है।

मैं जब अपने सच के साथ खड़ा हुआ,
हर भ्रम से खुद को बड़ा पाया।
न दंभ, न दिखावा — बस सच्चा मैं,
तो दुनिया ने भी कहा — "हाँ, ये है वह व्यक्ति!"

मैंने जब खुद से प्यार किया,
संभावनाओं ने मेरे द्वार खटखटाया।
जो पहले असंभव लगता था,
वह मेरे आत्मविश्वास से सरल बन गया।

अब मैं झुकता नहीं किसी नकली ताल से,
मैं नाचता हूँ अपने दिल की चाल से।
मैं जो हूँ — वही मेरी रोशनी है,
इसी से मेरी ज़िन्दगी की हर कहानी है।