मैं और मेरा प्रेम


मैं सोचता था, मैं समझदार हूँ,
शब्दों की ठोस दीवारों में रहता हूँ।
पर जब प्रेम ने द्वार खटखटाया,
तो मेरी आवाज़ काँपने लगी।

मैंने सोचा, मैं धैर्यवान हूँ,
पर तुम्हारी प्रतीक्षा में बेचैन हो गया।
हर पल घड़ी की सुइयों को देखता,
जैसे समय को पकड़ने की कोशिश कर रहा हूँ।

मुझे लगा, मैं खुला आसमान हूँ,
पर जब तुमने सच कहा,
तो मेरा मन रक्षात्मक हो गया।
मैंने दीवारें खड़ी कर लीं,
तुम्हारे शब्दों से खुद को बचाने के लिए।

मैंने माना, मैं भरोसेमंद हूँ,
पर जब तुम हँसे किसी और के साथ,
तो मेरे भीतर जलन की लपटें उठीं।
मैंने अपने घाव छुपा लिए,
पर वे अंदर ही अंदर रिसते रहे।

प्रेम आईना था, जिसमें मैंने खुद को देखा,
टूटे हुए हिस्सों को,
अधूरे शब्दों को,
कमज़ोर धैर्य और खोखली समझ को।

अब मैं प्रेम को दोष नहीं देता,
मैं खुद को संवार रहा हूँ।
अपने शब्दों को कोमल बना रहा हूँ,
अपने धैर्य को गहरा,
अपनी दीवारों को मिटा रहा हूँ।

क्योंकि मैं जानता हूँ—
प्रेम परीक्षा नहीं, एक अवसर है,
खुद को बेहतर बनाने का,
पूर्ण होने का।


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