मैं गहरे उतरा,
जहाँ कोई आकृति नहीं थी,
कोई भाषा नहीं,
सिर्फ़ शून्य का विस्तृत आकाश,
जहाँ समय बहता नहीं, बस ठहरा रहता है।
वहाँ मैं हल्का था,
ध्यान में घुलता,
शब्दों से परे, रूपों से मुक्त,
मैंने स्वयं को खो दिया—
और पाया भी।
लेकिन फिर,
हवा ने मुझे छुआ,
किसी चिड़िया की पुकार ने
मुझे वापस बुलाया।
मुझे लौटना था।
मैं उठा,
धीमे-धीमे कपड़े मोड़े,
पानी उबाला,
और अपने हाथों से बर्तन धोए।
यह भी सत्य था।
अब मैं जानता हूँ,
परमानंद और यह साधारण जीवन—
दोनों ही वास्तविक हैं।
संतुलन वहीं है,
जहाँ ध्यान की शून्यता और
रोटी सेंकने की गर्माहट एक साथ होती है।
मैं रोज़ जाता हूँ,
और रोज़ लौट आता हूँ।
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