त्रिपुंड: शिव की महिमा और आध्यात्मिकता का प्रतीक

  

त्रिपुंड भगवान शिव के माथे पर धारण किया जाने वाला एक महत्वपूर्ण प्रतीक है, जो उनके गहन आध्यात्मिक और धार्मिक महत्व को दर्शाता है। यह तीन समानांतर सफेद राख (भस्म) की रेखाओं से निर्मित होता है, जो शिव के भक्तों द्वारा भी धारण किया जाता है। त्रिपुंड न केवल शिव की महिमा और उनकी संहारक शक्ति का प्रतीक है, बल्कि यह आत्मज्ञान, मोक्ष, और संसार के चक्र से मुक्ति के गूढ़ रहस्यों का भी प्रतिनिधित्व करता है। इस लेख में हम त्रिपुंड के सात प्रमुख अर्थों और उनके आध्यात्मिक महत्व को विस्तार से समझेंगे।

     1. तीन गुणों का प्रतीक: सत्त्व, रजस्, और तमस्  

त्रिपुंड की तीन रेखाएं सृष्टि के तीन प्रमुख गुणों—सत्त्व, रजस्, और तमस्—का प्रतिनिधित्व करती हैं। हिंदू दर्शन में ये तीन गुण जीवन और जगत के प्रत्येक पहलू को नियंत्रित करते हैं। 

- सत्त्व (शुद्धता और प्रकाश): यह गुण शुद्धता, ज्ञान, और आध्यात्मिक जागरूकता को दर्शाता है। सत्त्व गुण के प्रभाव में व्यक्ति शांति, संतुलन, और ध्यान की स्थिति में होता है। यह आत्मा की परम अवस्था की ओर इशारा करता है।
  
    श्लोक:  
  _"सत्त्वं सुखे सञ्जयति ज्ञानं सत्त्वात् समुत्थितम्।  
  रजः कर्माणि भूतानां तमः प्रमादमेव च॥"_  
  (भगवद गीता 14.9)

- रजस् (क्रियाशीलता और भावनात्मकता): यह गुण जीवन में सक्रियता, क्रियाशीलता और इच्छाओं का प्रतीक है। जब रजस् हावी होता है, तो व्यक्ति अपने कर्मों, इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं में उलझा रहता है।

- तमस् (अज्ञानता और निष्क्रियता): तमस् अज्ञान, निष्क्रियता, और भ्रम का प्रतीक है। जब तमस् अधिक होता है, तो व्यक्ति आलस्य, अज्ञानता और मानसिक अवसाद की स्थिति में होता है।

भगवान शिव इन तीनों गुणों से परे हैं, और त्रिपुंड यह प्रतीक है कि शिव इन गुणों पर नियंत्रण रखते हैं। शिव-भक्ति का मार्ग सत्त्व गुण के माध्यम से आत्मज्ञान की ओर ले जाता है, जिससे व्यक्ति इन तीनों गुणों से ऊपर उठ सकता है।

     2. आध्यात्मिक अवस्थाओं का प्रतीक: जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति  

त्रिपुंड तीन प्रमुख अवस्थाओं का भी प्रतीक है—जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति—जो व्यक्ति की चेतना के विभिन्न स्तरों को दर्शाती हैं। 

- जाग्रत (जागृति की अवस्था): यह अवस्था जीवन की जागरूकता को दर्शाती है, जहां व्यक्ति संसार के भौतिक अनुभवों में संलग्न रहता है।
  
- स्वप्न (स्वप्न अवस्था): यह वह अवस्था है जहां व्यक्ति जीवन के सपनों और इच्छाओं के बीच होता है। इसमें मन भ्रमित होता है और सत्य से दूर होता है।
  
- सुषुप्ति (गहरी निद्रा): यह गहरी निद्रा की अवस्था है, जहां व्यक्ति अज्ञान और भ्रम में लिप्त होता है। यह तमस् की गहरी स्थिति है।

भगवान शिव तुरीय अवस्था में स्थित होते हैं, जो इन तीनों अवस्थाओं से परे शुद्ध चेतना की अवस्था है। त्रिपुंड यह दर्शाता है कि शिव ध्यान, योग और आत्म-साक्षात्कार के माध्यम से इन अवस्थाओं से मुक्त कर सकते हैं।

  श्लोक:  
_"त्रयाणां स्थूलभूतानां वृत्तिर्भवति येषु तु।  
तेषु स्तिथिं समास्थाय सुषुप्तिर्ज्ञेयता बुधैः॥"_  
(योगवशिष्ठ)

     3. अहम, माया, और कर्म का नाश  

त्रिपुंड की तीन रेखाएं यह भी संकेत देती हैं कि भगवान शिव अहंकार, माया, और कर्म का नाश करने में सक्षम हैं। 

- अहंकार (अहम): अहंकार वह शक्ति है जो व्यक्ति को स्वयं से जोड़कर रखती है। शिव का त्रिपुंड अहंकार के नाश का प्रतीक है, जिससे व्यक्ति को आत्मा की शुद्धता का अनुभव हो।
  
- माया (भौतिक भ्रम): माया वह भ्रम है, जो व्यक्ति को संसार के जाल में फंसाए रखता है। शिव की भक्ति माया के बंधनों से मुक्ति दिलाती है।
  
- कर्म (पाप और पुण्य का चक्र): कर्म संसार के चक्र का आधार है। शिव त्रिपुंड द्वारा यह दर्शाते हैं कि वे कर्मों के परिणामों से मुक्ति दिला सकते हैं।

     4. त्रिमूर्ति का प्रतीक: ब्रह्मा, विष्णु, और महेश  

त्रिपुंड हिंदू धर्म की त्रिमूर्ति—ब्रह्मा, विष्णु, और महेश—का भी प्रतिनिधित्व करता है।

- ब्रह्मा (सृष्टि के निर्माता): ब्रह्मा सृष्टि के आरंभकर्ता हैं, जो जीवन को जन्म देते हैं।
  
- विष्णु (पालनकर्ता): विष्णु जीवन का पालन करते हैं और सृष्टि को संतुलित रखते हैं।
  
- महेश (संहारक): शिव सृष्टि के संहारक हैं, जो पुरानी व्यवस्था को समाप्त कर नई व्यवस्था की स्थापना करते हैं।

शिव त्रिपुंड द्वारा यह दिखाते हैं कि वे सृष्टि के संहारक होते हुए भी पुनः निर्माण के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

     5. अग्नि के तीन रूपों का प्रतीक  

त्रिपुंड को अग्नि के तीन रूपों से भी जोड़ा जाता है, जो आत्मा की शुद्धि के लिए आवश्यक होते हैं।

- ज्ञानाग्नि: यह वह अग्नि है जो अज्ञान को जलाकर ज्ञान का प्रकाश फैलाती है। शिव के ध्यान और योग के माध्यम से यह ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती है।
  
    श्लोक:  
  _"ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।"_  
  (भगवद गीता 4.37)

- कर्माग्नि: यह कर्मों की अग्नि है, जो बुरे कर्मों को जलाती है और व्यक्ति को पापों से मुक्त करती है।
  
- चित्ताग्नि: यह चेतना की अग्नि है, जो आध्यात्मिक जागरूकता को प्रज्वलित करती है और आत्मा को शुद्ध करती है।

     6. शिव के संहारक रूप का प्रतीक  

त्रिपुंड भगवान शिव के संहारक रूप का प्रतीक है। यह दिखाता है कि शिव अज्ञान, अहंकार, और माया का नाश करके भक्त को मोक्ष की ओर ले जाते हैं। 

     7. मृत्यु और पुनर्जन्म से मुक्ति  

त्रिपुंड का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण आध्यात्मिक अर्थ है—मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति। त्रिपुंड यह संकेत करता है कि भगवान शिव के आशीर्वाद से भक्त इस चक्र से मुक्त हो सकता है और परम शांति (मोक्ष) प्राप्त कर सकता है।

  श्लोक:  
_“मृत्योर् मुञ्जीय मामृतात्”_  
(कठोपनिषद् 1.2.15)

     निष्कर्ष

त्रिपुंड एक गहरे आध्यात्मिक प्रतीक के रूप में भगवान शिव की महानता और उनके भक्तों के लिए मोक्ष के मार्ग का प्रतीक है। यह सृष्टि, गुण, अवस्थाओं, अग्नि, और त्रिमूर्ति के विभिन्न रूपों का प्रतिनिधित्व करता है और शिव की भक्ति के माध्यम से आत्मा को शुद्धि और मोक्ष प्रदान करता है। शिव की भक्ति के माध्यम से व्यक्ति संसार के बंधनों से मुक्त होकर तुरीय अवस्था की ओर अग्रसर हो सकता है, जो शुद्ध चेतना की अवस्था है।


सेक्स की शक्ति: दिव्यता या वासना का खेल



सेक्स मात्र एक शारीरिक क्रिया नहीं है, यह ऊर्जा, विचारों और भावनाओं का गहन आदान-प्रदान है। जब एक पुरुष एक महिला के गर्भ में प्रवेश करता है, तो वह किस प्रकार की चेतना और ऊर्जा के साथ आता है? क्या वह कड़वाहट से भरा है, या खुश है? क्या वह स्वयं से प्रेम करता है, और क्या वह आपसे प्रेम करता है? क्या वह सकारात्मक सोच वाला है या नकारात्मक?

स्त्री और पुरुष का मिलन: ऊर्जा का आदान-प्रदान
जब एक स्त्री पुरुष से प्रेम करती है, तो वह उसे आशीर्वाद दे रही होती है या श्राप दे रही होती है? क्या वह हताश, दुखी है, या वह स्वयं से प्रेम करती है? सेक्स एक ऐसा अनुष्ठान है जिसमें दोनों के बीच ऊर्जा, विचार और भावनाओं का अदान-प्रदान होता है। सेक्स के समय हम दूसरे व्यक्ति की चेतना और ऊर्जा को अवशोषित करते हैं। हर स्पर्श, हर गहरा संबंध एक पुष्टि होती है। क्या उस समय आपकी ऊर्जा और शक्ति कम हो रही है, या फिर आप सशक्त हो रहे हैं?

सेक्स: दिव्यता का एक शक्तिशाली अनुष्ठान
यदि आप सेक्स की शक्ति को समझते, तो आप इसे किसी भी व्यक्ति के साथ करने की गलती कभी नहीं करते। यह अत्यंत शक्तिशाली अनुष्ठान है। जब एक पुरुष किसी स्त्री के पास जाता है, तो क्या वह वासना से प्रेरित होता है या कुछ दिव्य बनाने की प्रेरणा से? दंपति के बीच क्रोध, दुःख, भय या हताशा के भाव हैं तो इसका प्रभाव उनकी ऊर्जा और सृष्टि पर पड़ेगा।  

देवत्व और दानवत्व का चुनाव
क्या पुरुष और स्त्री दिव्यता के वाहक बनने का प्रयास करते हैं, या वे वासना के गुलाम बनकर कुछ दानवीय उत्पन्न कर रहे हैं? पुरुष की स्वयं की मंशा, उसके पूर्वजों का प्रभाव, और उसकी जीवनशैली सब मिलकर सेक्स के परिणाम को तय करते हैं। यदि यह प्रक्रिया स्वार्थपूर्ण है, तो यह पूरे कर्म चक्र को दूषित करती है।

शिव-शक्ति का पवित्र मिलन
सेक्स केवल शारीरिक संबंध नहीं है, बल्कि यह शिव और शक्ति का दिव्य मिलन है। यह केवल दो व्यक्तियों का शारीरिक संबंध नहीं है, बल्कि इसमें उनके वंशजों का आशीर्वाद, उनके कुल का प्रभाव, और उनके कर्मों का प्रभाव भी शामिल होता है। यह कर्म प्रधान और अत्यंत प्रभावशाली आध्यात्मिक क्रिया है, जिसे केवल वासना के कारण करना, मनुष्य को पशु समान बना देता है।

शास्त्रों में कहा गया है:

"यो वै भूमा तत् सुखम्, नाल्पे सुखमस्ति" 
(छांदोग्य उपनिषद् 7.23.1)  
अर्थात, "जो अनंत है, वही सुख है; जो सीमित है, उसमें सुख नहीं है।"

यह श्लोक इस बात पर जोर देता है कि वास्तविक सुख केवल तब मिलता है जब हम अपनी आत्मा की गहराई से जुड़ते हैं, और सेक्स का उद्देश्य भी यही होना चाहिए। यह मात्र शारीरिक संतोष तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे आत्मिक मिलन और ऊर्जा के आदान-प्रदान के रूप में देखा जाना चाहिए। 
सेक्स एक पवित्र अनुष्ठान है, जिसका सही उद्देश्य दिव्य ऊर्जा का आदान-प्रदान और आत्मिक उन्नति है। इसे वासना के अधीन करना हमारी चेतना को कमजोर करता है और हमारे जीवन पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। जब तक सेक्स को आत्मिक विकास और दिव्यता के संदर्भ में नहीं देखा जाएगा, तब तक इसे पूरी तरह से समझा नहीं जा सकेगा।

महानता का मूल चरित्र



महानता न बुद्धि का वरदान है,
न तीव्र मस्तिष्क का कोई प्रमाण है।
यह तो हृदय की गहराइयों से उपजती,
चरित्र की मिट्टी में धीरे-धीरे ढलती।

बुद्धिमत्ता चमकती है पल भर के लिए,
पर चरित्र स्थायी है युगों-युगों तक।
सफलता तो क्षणिक झोंका है हवा का,
पर चरित्र वह दीप है जो कभी न बुझा।

सच्चा चरित्र नहीं बनता सुख के रंगों से,
यह तो तपता है दुख के अंगारों में।
हर आँसू जो गिरा, वह बीज बना,
हर पीड़ा ने व्यक्ति को महान किया।

जो टूटे हैं, वही समझते हैं दर्द का सार,
उनकी सहानुभूति में छिपा है संसार।
जो अंधेरों से गुज़रे, वही प्रकाश लाए,
जो गिरे, वही उठने का साहस दिखाए।

चरित्र निखरता है संघर्षों के बीच,
जहां सपने टूटते हैं, और इरादे सींच।
जहां हर हार एक सबक बन जाए,
जहां हर चोट आत्मा को गढ़ जाए।

बुद्धिमत्ता तो बनाती है योजनाएँ बड़ी,
पर चरित्र देता है उन्हें आत्मा नई।
वह सत्य, करुणा और धैर्य सिखाता है,
जीवन को मानवीयता से भर जाता है।

तो मत गर्व करो केवल अपने ज्ञान पर,
नहीं है यह महानता का आधार।
महान वही, जो दुख से बना है अमर,
जिसका चरित्र है धैर्य, सत्य और विचार।

याद रखो, चरित्र की अग्नि से गुजरना,
हीरे को चमक देने जैसा है सुंदर।
और महानता वही, जो चरित्र से बहे,
जो इंसान को इंसान बना कर रहे।


कौन हूँ मैं? 4



जन्म के उस पहले क्षण में, क्या कोई परिचय था मेरा?
ना कोई नाम, ना कोई चेहरा, ना ही कोई निशान ठहरा।
बस एक आत्मा का कण था, इस जग में जो आया,
मुक्त, निराकार, शुद्ध, जैसे अम्बर में हो समाया।

पर तब से धीरे-धीरे ये संसार ने लपेटा मुझे,
नाम, जाति, और धर्म के रेशों में जकड़ लिया मुझे।
असतो मा सद्गमय — अंतर्मन की ये पुकार,
असत्य से सत्य की ओर, मुझे खींचता बार-बार।

बचपन में थे कुछ सपने, जीवन के निश्छल रंग,
लेकिन समाज की परतों में, खो गया वो अनछुआ संग।
एक देश, एक धर्म, एक जाति का ले लिया मैंने नाम,
सच का वो स्वरूप था पीछे, बस मृगतृष्णा में था भ्रमित ये धाम।

कभी मन में सवाल उठता, कौन हूँ मैं वास्तव में?
क्या ये सब पहचानें, सचमुच हैं मेरे अस्तित्व में?
सोऽहम् — यह ध्यान मुझे शून्यता की ओर बुलाता है,
जहाँ ना कोई रूप है, ना कोई नाम, ना कोई परिभाषा बताता है।

क्या है ये धर्म, ये जाति, ये समाज का बंधन?
केवल मेरे भीतर की शांति को है एक कठोर मंथन।
बाहरी पहचान के जाल में फँसा हूँ कबसे,
लेकिन भीतर कहीं आज भी हूँ उसी सत्य की ही तलाश में।

वास्तविकता तो यही है कि मैं असीम, अनन्त हूँ,
अहं आत्मा गुहाशयः — उस गहरे अंतर में स्थित हूँ।
जाति और धर्म के इन बंधनों से दूर,
सिर्फ आत्मा का हूँ, वही है मेरा असली सुरूर।

तो क्यों मैं इस सीमितता में बाँधूँ खुद को बार-बार?
जब मेरा मूल सत्य है अनन्त, पूर्ण और अपार।
सिर्फ वही सत्य है, बाकी सब भ्रम का आवरण,
जब मिटेगा यह आवरण, तब ही होगा सच्चा जीवन।

सर्वं खल्विदं ब्रह्म — सबमें तो है वही आत्मा का स्वर,
ना कोई भेद, ना कोई भिन्नता, बस प्रेम का ही है संभार।
इस सत्य को समझूँ, इस माया से पार होऊँ,
अपने मूल रूप में, आत्मा का एहसास फिर से पाऊँ।

इस अंतहीन यात्रा में, मुझे मिलना है अपने आप से,
जहाँ ना नाम, ना रूप, बस शून्यता में खुद को पाऊँ स्नेह से।
मुक्त होकर इस माया से, सत्य का अनुभव करूँ,
कि मैं हूँ, सिर्फ हूँ, बस शाश्वत आत्मा का हूँ कण।

ॐ शांति शांति शांति — इस पथ पर चले चलूँ,
जहाँ ना कोई नाम, ना पहचान, बस आत्मा का मूल रूप मैं अपनाऊँ।
बस वही है मेरा सत्य, वही है मेरा परम धाम,
कि जन्म में जो मैं था, वही हूँ, वही मेरा नाम।


कौन हूँ मैं? 3



जब आई पहली साँस मेरी, तब तो था मैं शुद्ध, निर्दोष,
ना था कोई बंधन, ना था मोह, बस था मैं प्रकृति का संतोष।
कोई नाम नहीं, कोई पहचान नहीं, बस जीवन का एक अंश,
जन्म और मृत्यु के इस चक्र में, अद्वितीय आत्मा का प्रतिबिंब।

फिर क्यों समय के साथ-साथ, मैं बँधता गया इन बंधनों में?
जाति, धर्म, और पहचान के इस भारी आवरण में?
क्यों ये नाम, ये रिश्ते, ये पहचान मेरे साथ जुड़ गए,
और मेरे भीतर का अहं ब्रह्मास्मि का स्वर दब सा गया?

तत् त्वम् असि — ये ज्ञान तो जन्म से ही है मुझमें,
पर क्यों मैं भूला, क्यों अंधकार ने मुझे घेर लिया?
क्यों इन मानवीय सीमाओं में मैंने खुद को खो दिया,
सत्य का सूरज ढल गया, माया का आवरण बुन गया।

आज जब मैं देखता हूँ अपने भीतर, परतों को हटाता हूँ,
एक नई रोशनी में, सत्य का मार्ग दिख जाता है।
जाति का गर्व, धर्म का अभिमान, सब धुंधले से लगते हैं,
मैं तो बस अंश हूँ उस परमात्मा का, जो सृष्टि में समाहित है।

आत्मा न जायते म्रियते वा कदाचित् — ये शाश्वत सत्य है,
ना मैं जन्मा, ना मरूँगा, ये माया का पाश है।
मैं वही हूँ जो इस क्षण के पार, उस अनंत में बसा है,
जो नाम, रूप, और जाति के भ्रमों से परे, बस प्रेम का एक बसा है।

हर धर्म में, हर जाति में, वही एक चेतना का अंश,
फिर क्यों मैं बँध जाऊँ इन सीमाओं में, जो सत्य से दूर हैं?
ना कोई हिन्दू, ना मुसलमान, ना कोई अमीर, ना गरीब,
बस आत्मा का अनंत प्रवाह, जो इन जंजीरों से हो स्वतंत्र।

इस आत्मा की खोज में, जब बंधन सब टूट जाएँगे,
मैं फिर वही होऊँगा, जो जन्म के क्षण में था।
ना नाम, ना जाति, ना कोई धर्म, बस एक शून्य का भाव,
जहाँ से मैं निकला था, वहीं मैं लौट आऊँगा — एक शुद्ध, निर्विकार।

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते
जो पूर्ण से उत्पन्न है, वही मेरा सत्य है।
और ये जो पहचान का आवरण है, ये तो माया का खेल है,
मेरा असली स्वरूप तो उसी पूर्णता में समाहित है।

तो चलो, इन सीमाओं से बाहर निकल चलें,
सत्य के उस अनंत मार्ग पर जहाँ कोई बंधन न हो।
जहाँ मैं हूँ, तुम हो, और हम सब एक ही ब्रह्म के अंश हैं,
सर्वं खल्विदं ब्रह्म — यही जीवन का सच्चा स्पंदन है।


कौन हूँ मैं? 2



जन्म लिया जब इस धरा पर, क्या था मेरा कोई नाम?
ना था धर्म, ना जाति कोई, ना था कोई अभिमान।
श्वेत पटल सा निर्मल मन, शून्य में मैं खोया था,
सच की तलाश में तब से ही, उस अद्वैत में सोया था।

सत्यं शिवं सुंदरम् — यही थी मेरी पहचान,
ना कोई सीमा, ना कोई बंधन, सिर्फ प्रेम का प्रमाण।
माता-पिता का था आँचल, और धरती माँ का संग,
बिना किसी रूप-रेखा के, बस था अदृश्य सा रंग।

तब से लगा कि ये जो नाम, धर्म, और जाति का जाल,
केवल एक भ्रम है ये, ये बुनती हैं मानव की चाल।
अहं ब्रह्मास्मि की ध्वनि, जैसे गूंज रही अंतर्मन में,
परिचय छूटता चला गया, जीवन के इस यथार्थ क्षण में।

आज जब खुद को देखता हूँ, परतों में ढके हुए,
नहीं हूँ वो जो दिखता हूँ, बस अदृश्य में छुपे हुए।
जाति, धर्म, और पहचान के सब भ्रमों को तोड़ता,
अपने असली स्वरूप में, सत्य को मैं जोड़ता।

कभी सोचता हूँ, क्या ये सब भौतिकता का भ्रम है?
आत्मा तो मुक्त है, सर्वं खल्विदं ब्रह्म का ही परम है।
तो क्यों मैं कैद हूँ इन सीमाओं में, इस मायावी संसार में,
जो जन्म में न था, आज क्यों मेरे अस्तित्व का आधार बने?

यत्र विश्वं भवति एक नीड़म्, यही है मेरा ध्येय,
ना कोई भेद, ना कोई बंधन, केवल प्रेम का नित्य ये श्रेय।
जाति-धर्म के पार चलूँ, इस सीमाओं से मुक्त होऊँ,
अमृत की उस धार में, सत्य से साक्षात्कार करूँ।

सच तो यही है कि मैं बस हूँ, इस अद्वितीय ब्रह्म का अंश,
मुक्ति के उस पथ पर चलूँ, जहाँ ना कोई भेद, ना कोई बंधन।
जब जन्म लिया, तब जो था, वही मेरा परम सत्य है,
बाकी सब माया का आवरण है, जो बदलता रहता क्षण क्षण।

ॐ तत् सत्


रूह को आज़ाद कर

बदले की आग में, खुद को मत जलाओ,
दर्द की जंजीरों से, खुद को मत बंधाओ। 

जिसने दिया है घाव, उसे जाने दो,
अपने दिल की तपिश को, ठंडा करने दो।

बदले की राह में, बस समय है गँवाना,
अपनी रूह को आज़ाद कर, चलो नया फसाना।

दर्द को थाम कर रखना, बस तुझे और दुख देगा,
छोड़ दो वो बोझ, जो तुझे पीछे खींचता रहेगा।

अपनी ऊर्जा को बदल दो, बदले की नहीं, उपचार की ओर,
चाहे जितना भी कठिन हो, बढ़ो खुद की बहार की ओर।

मिटा दो नफ़रत का हर निशान, और प्यार से भर लो,
चोट को भूल कर, अब अपनी सुकून की राह पर चलो। 

यह कौन हूं मैं?



जन्म का क्षण क्या था?
ना जाति, ना नाम, ना कोई पहचान।
शून्य था वो एक क्षण मात्र,
जहां मौन ही मेरा एकमात्र था धन।

अहम् ब्रह्मास्मि का था वो भाव,
ना कोई समाज, ना कोई जात, ना राग।
सबकुछ अस्तित्व में समाहित था,
मन-मर्यादा से परे, बस आत्मा का स्वरूप था।

जन्म के संग ये दुनियावी भार,
नाम, धर्म, जात, और संस्कार।
कहां से आए ये सीमाएँ इतनी,
क्यों बाँध दिए इस आत्मा को इतने विचार?

सर्वं खल्विदं ब्रह्म - ब्रह्मांड का सत्य यही,
परंतु माया ने घेर रखा हमें, है ये भी सही।
तब खुद से एक सवाल पूछता हूं,
किसके हैं ये बंधन, क्यों ये पहचान हम पर सजी है?

धर्म जो अपनाए हमने जन्म के बाद,
कहां था वो बचपन की उस प्रथम पुकार?
वो पावन क्षण जब मैं था केवल एक श्वास,
ना जाति, ना धर्म, ना कोई विभाजन का दास।

तोड़ दो ये सीमाएं, ये नामों का भ्रम,
जब शाश्वत है आत्मा, तब कैसा गरल, कैसा धर्म?
वो जो आया है धरती पर मुक्त-स्वरूप में,
क्या वो जकड़ सकता है इस मृगतृष्णा के स्वरूप में?

ब्रह्म सत्य है, शाश्वत है, नित्य है हम सब में,
तब क्यों बांधते हैं हम इसे इस पहचान के झमेले में?
तत्त्वमसि - तू वही है, साक्षात् ब्रह्म का हिस्सा,
इस सत्य को जान, पहचान का भ्रम कर विसर्जन।

रख मन में ये गहराई का ज्ञान,
जन्म के क्षण का वही निर्मल ध्यान।
जाति, धर्म, और नाम से मुक्त होकर,
जीवन को देख, जैसे आत्मा का अनंत एक स्वप्न।


मूल का प्रश्न



क्या नाम हमारा यही, जो जग ने हमको दे डाला?
किस जाति, धर्म, वर्ण में, इस जन्म में क्यों बंध डाला?
स्मरण करो उस क्षण को, जब आँखें पहली बार खुलीं,
क्या पहचान थी अपनी तब, क्या तब कोई सीमा लगी?

मूल स्वरूप का प्रश्न

न जाति थी, न धर्म था, न कोई भिन्नता का नाम,
सिर्फ शुद्ध आत्मा थी वह, बस अस्तित्व का अविराम।
संस्कृति, समाज, जातियाँ, ये सब हैं भ्रम के तंतु,
परम सत्य की खोज में ये, कितनी रुकावटें बुनते।

संस्कारों का भार

संस्कारों का बोझ लाद कर, जीवन में हम चल पड़ते,
पर हर कदम पर स्वयं से दूर, हम खुद को ही छलते।
"अहं ब्रह्मास्मि," का उद्घोष तो करते हैं अधरों से,
पर वास्तव में नहीं समझते, सत्य छुपा जो अंतर में।

परिवर्तन का आह्वान

हे मानव! अब तुम जागो, अपनी सच्ची पहचान को जानो,
मोह-माया के बंधन तोड़, आत्मा का अमर स्वाभाव पहचानो।
"नमः शिवाय," में खो जाओ, अपने मूल में जो मिल जाए,
हर भ्रम, हर परिचय, हर जाति, सत्य में घुल जाए।

शुद्ध चेतना का मार्ग

"तत्त्वमसि," वह सत्य है, जो भीतर हर प्राणी में वास,
ना कोई भेद, ना कोई द्वेष, यह आत्मा की है आवाज।
सभी देह का भेद मिटाकर, मन में एकता भर ले तू,
एक अंश है परमात्मा का, तू इस सत्य को समझ ले तू।

समर्पण और समाधि

अंत में यह समझो, कि हर नाम, रूप, जाति के बंधन,
मात्र क्षणिक हैं, और तुम्हें ले जाते हैं मोह-माया के बंधन।
असली मुक्ति तब मिलेगी, जब आत्मा का सच पहचाने,
प्रेम और करुणा में डूबे, हर जीव में ईश्वर पहचाने।


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इस कविता का संदेश यही है कि हमारा असली स्वरूप किसी नाम, जाति, धर्म से परे है। हमें आत्मज्ञान की ओर बढ़ना चाहिए और उस शुद्ध चेतना को पहचानना चाहिए जो जन्म से ही हमारे भीतर है।


अस्तित्व का मूल प्रश्न



जन्मते त्वं शून्यतायां, बिना नाम रूपेण।
तू न हिंदू, न मुसलमान, न जाति का बंधन तुझ पर।
 बस था तेरा शुद्ध अस्तित्व, जो सीमाओं से मुक्त था।


अस्मिन जगति त्वं निराकारः, शून्यं स्वयम् अवस्थितः धर्मो न ते जाति, न ते वर्णो, न राष्ट्रस्य तीक्ष्णता।
 ब्रह्म स्वरूपमस्ति त्वं, न तत्र जाति न तत्र धर्मः

काल के प्रवाह में बंधा, मानव ने किए बंधनों के जाल। कभी नाम, कभी धर्म, कभी पेशा, पर मन रहा तेरे बिन विसाल।
पर हर बंधन के पीछे छिपा है, वही निर्मल, असीम सत्य।

"अहम् ब्रह्मास्मि" ध्वनि से स्पंदित, तू है एक शाश्वत राग। क्यों भूला तू उस मूल को, जिसे कभी पाया ही नहीं था भेद।
 तू तो बस एक ज्वाला है, जिसे न नाम की जरूरत है, न रंग की।

विवेक-ध्यान से देख अपना स्व, वहाँ न कोई सीमा का भाव है।
जाति-धर्म सब झूठे मुखौटे, जो तुझे बाँध न सकेंगे।
 अनंत का तू एक अंश है, मुक्त-निर्मल, अपरिचित सत्य।


अपनी क्षमता को व्यर्थ न जाने दो

क्यों रुकूं मैं, जब राहें बुला रही हैं, क्यों थमूं मैं, जब हवाएं गा रही हैं। यह डर, यह संशय, यह झूठा बहाना, इनसे नहीं बनता किसी का जमाना। आध...